Sunday, July 10, 2011

बिखरता आसमान

बिखरता आसमान


वह कृि ा उपज मंडी के अपने ऑफिस में बैठा था। मंडी में चने लेकर मोलू दादा आए थे। गांव के रिस्ते में वह उन्हें दादा ही कहता। उसने दादा को अपने ऑफिस में बिठाया और चाय मंगवा ली। गांव का हाल-चाल पूछा तो जैसे एक बार गांव ही हो आया। वैसे भी साल भर में एक बार तो हो ही आता है गांव में। गांव में उसका वोट है.......घर है पुश्तैनी। सच तो यह है कि वह अपने गांव से कभी अलग हुआ ही नहीं। आज तेरह साल होने को आए यहां ाहर में रहते पर नींद में सपने आते हैं उसी गांव वाले घर के। सपनों में गांव का पीपल का दरख्त दिखता है या वह बेंडी कीकर तले कुरां खेलता होता है। मोलू दादा वाले नोहरे की सीलन भरी दीवार के पास पेशाब करते हुए का स्वप्न तो जब कभी आ ही जाता है। आंख खुलते ही उसे अपने सपने पर हंसी आती है और कुछ देर तक वह यूं ही एक ओर देखता रहता है। हंसी के पीछे छुपी उदासी अचानक ही उसके चेहरे पर उतर आती है और उसकी आंखें दूर कहीं देखती हुई सिमटने लगती हैं। इस बार उसने पक्का ही सोच लिया था कि गांव में अपने घर और बाड़े की जगह का पट्टा बनवाकर 'हाऊसलोन` ले लेगा।
मंडी और गांव के मध्य अधिक दूरी नहीं है। दस कोस से भी कम ही होगी ाायद। लोग ऊंटगाड़े पर अपना माल ढोकर मंडी आते हैं। सांझ ढले लौटते समय खली -बिनौले, गुड़-तम्बाकू आदि ले जाते हैं। आम के आम और गुठली के दाम। गांव से आए लोग लगभग उससे मिलकर ही जाते हैं। किसके यहां ाादी है....कौन बूढ़ा आगे खिसक लिया, पूरी डाक रहती है उसे।
मोलू दादा ने बातों ही बातों में बताया, 'सरपंच मन्दिर बना रहा है।`
'किस ओर ?`
'शायद तुम्हारे घर और बाड़े का जिक्र है।`
सुनकर गुस्सा आया उसे। ऐसे क्या पोल है ? घर और बाड़ा तो बाप-दादा के समय से ही है। जब उसके दादा आकर बसे थे यहां, उसी समय से। गांव के नंबरदार ने बहुत आदर के साथ दी थी यह जगह ...'भाई हजारी, गांव राम होता है....काम की कमी नहीं है यहां। करने वाला चाहिए। वैसे तूझे कोई परेशानी नहीं आने दूंगा....जिंदा रहा तब तक तो...।`
दादा की याद उसे नहीं आती। ाायद उसके जन्म होते ही चल बसे थे...पर बाड़े में सूखते चमड़े की पटि्टयों में दादा की याद बस गई थी। सूखते हुए चमड़े पर हाथ फेरते हुए उसके पिताजी बताते... 'बहुत प्रेम था नंबरदार का। तुम्हारे दादा से तो उनकी खूब पटती थी। दादा की बनाई जूतियां तो ऐसी चि>ा चढ़ीं कि ठेठ पंजाब तक पहुंचा दी उन्होंने। नंबरदार की बड़ी वाली लड़की का ससुराल पंजाब में था। कहता..'यार हजारी, तुम्हारी बनाई जूतियों का जवाब नहीं। मजाल है जूती और पैर के बीच से सूई भी निकल जाए ! और वजन में....? अरे क्या कहने भई....ऐसी कि पैर अपने आप ही उठते चले जाएं।`
और अब सरपंच उसकी घर और बाड़े वाली जगह को छीनना चाहता है... पीढ़ियों के बाद ? और कोई जगह नहीं मिली उसे ? वह गुस्से से भरता गया भीतर ही भीतर। गांव से आए मोलू दादा कब के चले गए उसे पता ही नहीं चला।
ााम को घर आकर उसने पत्नी चम्पा को बताना चाहा पर कुछ सोचकर रहने ही दिया। लड़की कमरे में पढ़ रही थी। वह बाहर आकर आंगन में कुर्सी पर पसर गया।
'क्या हुआ ?` चम्पा पूछ रही थी।
'...कुछ नहीं। ...सिर में दर्द है, तू जरा चाय बनाले।`
रात में उसे देर तक नींद नहीं आयी। इधर-उधर की सोचता रहा। पास ही लेटी चम्पा काफी देर तक उससे बतियाती रही...फिर नींद ने आ दबोचा।
सुबह ऑफिस जाकर उसने आधे दिन की छुट्टी ले ली और गांव जाने वाली बस में चढ़ लिया। सरपंच घर पर ही था। कुछ देर तक इधर-उधर की बातें होती रहीं। असली बात पर आते ही सरपंच टाल गया...'भई मैं कौन होता हूं। मन्दिर तो गांव वाले बना रहे हैं। रही जगह की बात, तो सभी जानते हैं कि जगह तो तुम्हारी ही है। पर पंचायत के खाते में कहीं इन्द्राज है नहीं। कानूनन तो जगह अभी भी पंचायत की ही है। और पंचो का फैसला टाले भी कौन ! पट्टा तो मन्दिर के नाम बन चुका...।`
'पर...ऐसे कैसे हो सकता है ?` वह अपने गुस्से को दबाए हुए था।
'क्यों ? होगा तो वही जो पंच चाहेंगे !`
'गांव से क्यूं....देस से ही निकाल दो न....` वह कहना चाहता था पर भीतर ही भीतर तिलमिला कर रह गया। वह समझ गया कि सरपंच उसकी सुनने वाला नहीं। उठ कर वह बाहर आ गया।
सरपंच के घर से निकलते-निकलते उसे काफी देर हो गई थी। पर ाहर जाने वाली बस के जाने में अभी समय था। उसका जी चाहा कि एक बार अपने घर व बाड़े तक हो आए। दो कोठड़ियों का उनका घर बरसों से बंद पड़ा था। खंडहर होता। टेड़ी-मेढ़ी ाहतीरों पर लटकती बल्लियां और सीलन भरी दीवारें जैसे अभी भी किसी के आने का इंतजार कर रही थीं। तेरह साल पहले जब वह ाहर गया था तो कई-कई घंटों तक दीवारों पर अपना हाथ फिराता रहा था...जैसे रोम-रोम में घर को समेट कर ले जाएगा। बाड़े के जीर्ण कांटे भी कई-कई दिन तक उसके भीतर चुभते रहे थे।
ाहर में महीने भर चक्कर लगाते-लगाते उसे एक किराए का घर मिला। घर क्या था....बस एक कमरा और एक छोटी-सी रसोई। रसोई से चिपकी हुई कच्ची 'लैट्रीन` और 'बाथरूम`। आंगन के नाम पर मुश्किल से दो चारपाई बिछ जाने की जगह ही।
ाुरू-शुरू में उसे मितली-सी आती रहती। रात को देर तक उसे नींद नहीं आती। आती तब सपनों में फिर से गांव के अपने घर में जा पहुंचता। सुबह उठता तब बहुत देर तक अपनी आंखें फाड़-फाड़कर कमरे की दीवारों की ओर देखता रहता। भीतर एक उदास भाव उतर आता।
कई महीनों के बाद तक वह किसी दूसरे घर की तलाश में घूमता रहा। ाायद कोई घर अपना-सा लगने लगे। पर ऐसा हुआ नहीं। कहीं अगर कमरा कुछ खुला-खुला होता तो बाथरूम बना ही नहीं होता। रसोई होती मगर छोटी सी, जो जीने के नीचे छूटी खाली जगह को घेरकर बनी होती। किसी घर का किराया दो गुना-चार गुना होता तो किसी जगह कोई दूसरी समस्या आड़े आ जाती। आखिर उसने सोचा, यही ठीक है। पत्नी तो बेचारी पहले से ही खुद को ढाल चुकी थी। छ: महीने बहुत होते हैं। औरत को तो छ: दिन ही काफी !
'मैं तो आपसे रोज ही कहती हूं...आखिर क्या कमी है इस घर में ? अच्छा भला मौहल्ला है...गांव के जैसा। दीपू की मम्मी, दिया की मम्मी और वो गिरदावर जी की मम्मी तो खूब लाड़ करती है हमारा.....'ना ना मौहल्ला छोड़ कर मत जाना...!`
'लो फिर ....नहीं छोड़ेंगे भई !`
कहने को तो उसने कह दिया पर अभी भी वह ऑफिस से घर लौटता तो उसे लगता किसी अनजान घर में आ गया हो जैसे।
रात को घर के छोटे-से आंगन में आसमान का एक छोटा-सा टुकड़ा दिप-दिप करता हुआ ऐन उसके सिर पर होता। इस कोने से उस कोने तक तारों से भरा। वह टकटकी लगाए अपनी चारपाई पर लेटा रहता। ऊपर आसमान में अजगर की नांईं लेटी आकाशगंगा करवट बदल लेती पर उसकी आंखों में नींद नहीं आती। पास ही चारपाई पर लेटी चम्पा बच्ची को सुलाते-सुलाते कब की सो चुकी होती। वह सिर पर टंगे आसमान में न जाने क्या ढूंढता रहता। आखिर रात की जवानी के साथ-साथ उसकी पलकें भी ढल जाती। थोड़ी देर बाद ही वह एक बार फिर से आसमान के बीच होता। हां... अपने स्वयं के आसमान के बीच।
उसका स्वयं का एक आसमान था। छोटा सा। और था थोड़ा सा पानी, हवा और मुट्ठी भर धूप..... साथ में थे ढेर सारे सपने। यूं उसके पास वह सबकुछ था जो उसके जीने के लिए जरूरी था। पर जब से उसकी छोटी-छोटी चिरमी-सी आंखों में सपने तैरने लगे थे, ठीक उसी दिन से न जाने कितनी बार यह आसमान सिकुड़ता-फैलता रहा था।
स्कूल से घर आते ही वह अपना बस्ता रखकर बाहर निकल पड़ता। 'नैणोवाले` जोहड़ या 'पूनणीवाले` मैदान की तरफ। लड़के क्रिकेट खेल रहे होते। एक कोने खड़ा- खड़ा वह उन्हें देखता रहता। कभी कोई लड़का कम होता उस रोज उसे खेलने दिया जाता। गेंद कुछ जल्दी नहीं पहुंचती या पैरों के पास से निकल जाती तो सब के सब उससे झगड़ा करते। प्रत्यक्ष में वह कुछ न कह पाता पर भीतर ही भीतर दुखी हो जाता। उसकी आंखों के सपने अचानक रौंद दिए जाते। गर्दन झुकाए वह घर लौटता तो मां सब कुछ समझ जाती.....'दुखी मत हो बेटा ! गेंद जरा जल्दी से पहुंचा दिया कर....।` मां उसके सिर पर अपना हाथ फेरते हुए कहती।
'पर मां....वे बड़े-बड़े लड़के हैं।`
मां मुस्कुरा देती।
दिन जाते पता नहीं चलता। वह दसवीं कक्षा में था। 'बोर्ड` के पेपर थे। उसका सेंटर फेफाना गांव में था। तैयारी खूब थी। सालभर जमकर याद किया हुआ 'मैटर` उसने एक बार फिर से देख लिया था। उसे ही क्या सारे अध्यापकों को भी भरोसा था कि वह मेरिट में तो आएगा ही।
उसके रोल नंबर स्कूल के हॉल में थे। परचा देखते ही वह फूल-सा खिल गया। सारे के सारे सवाल उसे अच्छी तरह से याद थे।
अभी आधे सवाल ही हल किए होंगे कि उसके एक दम पीछे बैठे दढ़ियल-से लड़के ने फुसफुसाते हुए उससे कुछ कहा। उसने मुड़कर लड़के की ओर देखा तक नहीं। बस अपने काम में लगा रहा। पर पीछे वाला लड़का ाायद अब उसकी पीठ में अपनी अंगुली चुभो रहा था। वह कुछ और आगे सरक गया। लड़का इस बार कुछ तेज आवाज में बोला...'सवाल बता !`
सुनकर भी उसने कोई जवाब नहीं दिया और अपने सवाल हल करता रहा। पेपर का समय खत्म होने में अभी कुछ समय ो ा था। पीछेवाले लड़के ने उठकर अपनी कॉपी पकड़ाई और हॉल से बाहर निकल गया। उसकी जान में जान आयी। बचे हुए सवालों को उसने आराम से हल कर लिया। पेपर खत्म होने के बाद वह स्कूल के गेट से बाहर निकल ही रहा था कि हक्का-बक्का रह गया। दढ़ियल लड़का गेट के पिल्लर की ओट से अचानक निकल कर उसके सामने आया और उसकी कॉलर पकड़ ली....'पेपर सही- सलामत देने की इच्छा नहीं है क्या ?` उसने विरोध करना चाहा पर आवाज भीतर ही कहीं 'गूं..%%..गूं` होकर बिला गई।
इसके बाद वह अपना पेपर जल्दी से हल करने के बाद दढ़ियल लड़के को पकड़ा देता। पेपर लेने वाला अध्यापक उसकी ओर देखता और मुस्कुरा देता। पहले ही दिन उसने हैडमास्टर से शिकायत करनी चाही थी पर साथ वाले लड़कों ने बताया, 'थानेदार का लड़का है....`। वह मन ही मन घुट कर रह गया। पेपर खत्म होने के बाद घर पहुंचा तो मां-पिताजी के सामने फफक पड़ा। गुस्से और खीज से भरी उसकी बेंत-सी देह देर तक हिलती रही। पर होता क्या ? हांडी के उबलने से किसी का क्या बिगड़े....खुद उसी के किनारे ही तपते हैं....।
पर होता यंू कि जब-जब उसके सपने मसले जाते और भीतर पसरा दिपदिपाता आसमान खरगोश की नांईं सिमट जाता तो मां-पिताजी की आंखों में तैरता पुचकार भरा पानी धीरे से बाहर ढलक आता और उसके भीतर जैसे एक निश्चय अपने पैरों पर फिर से खड़ा होने लगता। सबसे अलग और आगे निकल जाने का उत्साह उसे रात के एक- एक बजे तक जगाए रखता। बड़ी-बड़ी किताबों के एक-एक ाब्द उसके भीतर उतरते जाते....और...भीतर के सपने बाहर की ओर उड़ान भरने लगते..। दूर....बहुत दूर तक।
यहां तक कि उड़ते-उड़ते वह आई.ए.एस. की परीक्षा तक पहुंच गया। बड़े नंबरों वाली ऐनक के पीछे उसकी आंखों में छलांग लगाते सपने थे और सामने थी एक मंजिल। पर इंटरव्यू तक पहुंचते-पहुंचते उसके सपनों के होंठ ढलक जाते और मंजिल कहीं दूर खिसक चुकी होती।
इंटरव्यू लेने वालों के एक के बाद एक बेमतल के सवालों से उसे निश्चित तौर से पता चल गया था कि वे महज उसे घेरना चाहते हैं। उसकी बेंत-सी देह...मां-बाप और उसकी जात पर टिप्पणी करने का उद्देश्य साफ समझ में आ गया था उसे।
घर आकर कई दिनों तक सहज नहीं हो पाया था वह। मां...? मां तो मां ही होती है...'हौसला रख बेटा....सोने के जंग नहीं लगता...।`
एक बार फिर से तैयार था वह। पर दूसरी और तीसरी बार इंटरव्यू तक पहुंचा तो उसके सपनों की पांखें बिल्कुल ही टूट गईं। टूटी हुई पांखों से कई-कई दिनों तक लहू चूता रहा।
धीरे-धीरे उसकी समझ में आ गया कि आसमान भले ही कितना ही खुला क्यों न हो उड़ान की सीमा तय करनी ही पड़ती है।
और यूं कृि ा उपज मंडी में बाबूगिरी से ही खुश था वह.... ाायद ? चाहे जो हो, रोज बिखरता-संहृत होता आसमान था तो सही ! हवा, पानी और धूप जो कुछ भी था अपना स्वयं का था।
पर अब बरसों बाद उसका छोटा-सा स्थिर आसमान ाायद फिर से हिल गया था। गांव से लौटने के बाद फिरते-फिराते दो-तीन दिन यूं ही निकल गए। आखिर उसने सरपंच के खिलाफ केस ठोक दिया। मांगी वकील उसका जिगरी था।
'पगला है तू ! अपनी जगह कोई नहीं ले सकता....।` मांगी ने चुटकी बजाकर कहा तो उसे कुछ धैर्य हुआ।
'पर मेरे पास जगह के कागज तो नहीं हैं ?`
'कब्जा तो पुराना है ?`
'पुराना कितना कहूं.....दादा के समय का है।`
'तो बस ! बाकी सब कुछ मुझ पर छोड़ दे।`
आने वाले इतवार को एक बार फिर से वह गांव जाने की सोच रहा था। आशाराम दादा और बनवारी काका से भी तो मिल लेना चाहिए ! आखिर वे ही कुटुम्ब के नजदीकी लोगों में से हैं। क्या हुआ जो गांव के उ>ार में जाकर नयी बस्ती में बस गए ! जड़ें तो हमारे घर-बाड़े के पास की ही हैं.....! उसके मन में आगे की रणनीति बन रही थी। पर दोपहर होते-होते ऑफिस में सरपंच का फोन आया...'लल्ला केस उठा ले।` सुनकर उसे गुस्सा आया कि साले धतींगड़ को खरी-खोटी सुना दे पर कुछ सोचकर उसने फोन रख दिया।
इतवार को सुबह-सुबह ही वह रोज की तरह घूमने निकला पर जल्दी ही लौट आया। सोचा जरा गांव की तरफ हो आऊं...।
सूरज निकलने में अभी देर थी। लौटकर उसने बाहर के दरवाजे को बंद किया पर कुंडी नहीं लगाई और आंगन में चला आया। बच्ची अभी सो रही थी। चम्पा ाायद चाय बना रही थी। उसने नहा लेने की सोची पर इतने में ही बाहर किसी जीप के आने की आवाज सुनाई दी।
'कौन हो सकता है ?` उसने चम्पा से बतियाने की गरज से पूछा।
तभी दरवाजे की घंटी बजी। वह दरवाजे तक गया पर दरवाजा तो खुला ही था। मुंह पर कपड़ा लपेटे चार-पांच लोग जबरदस्ती भीतर आंगन में घुस आए।
'क...कौन हो तुम ?` उसने जल्दी से पूछा पर पूरी बात कहने से पहले ही उनकी टांगों में उलझ कर रह गया। हिम्मत कर फिर से उनके सामने होने की कोसिस की तो एक ने उसकी गर्दन पकड़ ली। दूसरे ने उसके दोनों हाथों को पीछे मरोड़ते हुए कमर पर घुमा दिया। वह दर्द से बिलबिलाता रहा पर गले से 'घुर्र....घुर्र` की आवाज निकल कर रह गई। लगा आंखें बाहर की तरफ उबल पड़ेंगींं। टेंटुआ थामने वाले व्यक्ति ने लगभग उसे उठा रखा था। उसने उसे पहचान लेने की कोसिस की। वह सरपंच के परिवार के लड़कों में से ही एक था। उसने अपनी लगभग बाहर निकल चुकी आंखों से दूसरे लोगों को देखना चाहा पर तभी चम्पा उनके बीच में आ गयी.....। एक आदमी ने उसका बाजू पकड़ा और दूर छिटका दिया। उस आदमी ने अपनी बेल्ट से चाकू निकाला और चम्पा की ठौड़ी पर धर दिया.....'तेरे खसम को समझा ले...जीना नहीं चाहता क्या ?`
वे जितनी तेजी से आए थे उतनी ही तेजी से चले भी गए। दरवाजे के किवाड़ अभी तक आगे-पीछे झूल रहे थे और....। उसके भीतर जैसे सबकुछ जड़ हो गया था। बरसों से बिखरता-संहृत होता आसमान अब चौतरफ बिखरा पड़ा था। कहां हवा थी, कहां पानी.....कुछ पता नहीं।




पूर्ण ार्मा 'पूरण`
प्रा०स्वा०के० रामगढ़
त० नोहर जि० हनुमानगढ
राजस्थान-३३५५०४