Saturday, October 13, 2012


बाग चिड़िया और स्वप्न
- पूर्ण शर्मा ‘पूरण’

वह सिर्फ छः साल की थी या शायद इससे भी कम। स्कूल से लौटने के बाद उसका अधिकतर समय होमवर्क करने या बाहर गली में सोनू, टिंकू और दूसरे साथियों के साथ खेलने में बीतता। मां के पास वह बहुत कम ही रह पाती अलबत्ता पड़ौस की सुनीता दीदी से वह इतना अधिक प्यार करती कि उन्हीं की साईकिल के पीछे बैठकर स्कूल आते-ज
ाते भी उसका मन न भरता। सांझ ढलते ही फिर से उनके पास चली आती, ‘दीदी, कहानी सुनाओ ना....’। दीदी उसे ढेर-सी कहानियां सुनाती। फूलों-जंगलों की कहानी, नदी-पहाड़ों की कहानी, नन्हे खरगोश-गिलहरी की कहानी या प्यारी-प्यारी परियों की कहानी। पर रोज ऐसा होता कि वह सुनीता दीदी से कोई कहानी सुन रही होती और चुपके से नींद आकर उसे सुला देती। पर...कहानी फिर भी चलती रहती। हां... सपने में। दीदी धीरे-से उसे उठाकर अपने कंधे से लगाती और उसके घर पर लाकर सुला देती। पर वह अब भी दीदी के साथ होती।
सुबह अपने कमरे के बेड पर खुद को देखकर उसे कभी समझ में नहीं आया कि ऐसा क्यों होता था..... वह रोज तो दीदी के साथ उनके घर पर सोती पर सुबह उठते समय अपने स्वंय के घर में होती।
अक्सर वह अपने सपनों और हकीकत में फर्क नहीं कर पाती थी। कभी-कभी जो हो रहा होता वह सपना होता या जो सपने में देख रही होती, हकीकत होती।
पिछले महीने ही जब उसने अपने स्कूल के एक कार्यक्रम में अपनी प्यारी-सी आवाज में गाना सुनाया तो ढेरों तालियां बजी थीं। कार्यक्रम के समापन पर उसे एक गिफ्ट हैंपर भी दिया गया था। उसे सब कुछ सपना-सा लगा और वह खुशी से उछल पड़ी। .....अचानक उसे खयाल आया कहीं वास्तव में स्वप्न ही तो नहीं ? अपनी जांघ पर बाकायदा चिकौटी काटकर ही उसे तसल्ली हुई थी।
सपने उसे हर रात आते। खाना खाने के तुरन्त बाद वह दीदी के घर दौड़ पड़ती और दीदी से लिपट जाती......‘कहानी सुनाओ ना...’। हालांकि वह कोई भी कहानी पूरी न सुन पाती। कहानी खत्म होने से पहले ही गुलाबी नींद का कोई झौंका आता और वह बह जाती। रात भर एक-एक कर सपनों के कंधे बदलते रहते और वह यहां से वहां, वहां से यहां घूमती रहती। कभी-कभी तो वह बहुत दूर निकल जाती...... एक अनजानी जगह। ऊंचे-ऊंचे मकानों, रेत के धोरों और नदी की धार पर से गुजरते हुए जंगल और पहाड़ों से भी ऊपर वह बादलों तक जा पहुंचती। रूई की गेंदों जैसे बादल ! वह उन्हें अपनी बांहों में भर लेना चाहती। सफेद, हल्के गुलाबी या कुछ-कुछ स्लेटी रंग लिए हुए खरगोश की तरह भागते बादलों के मध्य वह खुद एक बादल हो जाती....नन्हा-सा बादल। खुशी से वह नाचने लगती तो गुलाबी रंग की उसकी फ्रॉक का घेर फैलकर सब कुछ ढक लेता और उसके चारों और हल्की लालिमा बिखर जाती। बादल गायब हो जाते। वह फिर से बादलों के पास जाना चाहती पर कमरे की खिड़की से सूरज की पहली किरण चुपके-से भीतर आ जाती और मां उसे झिंझोड़ कर जगा देती। वह आंखें फाड़-फाड़कर मां की तरफ देखती। नजरें गड़ाकर बिखर गए सपनों को फिर से संजोने का प्रयास करती।
‘क्या देख रही है यूं..... उठना नहीं ?’ मां उसके गालों को प्यार से सहलाती। तब तक उसका निचुड़-सा गया चेहरा फिर से सामान्य होने लगता। कमरे में आती धूप का एक टुकड़ा अचानक उसके गालों पर चमकने लगता..... जैसे रात भर के सपनों का अहसास दिप-दिप करने लगा हो।
सपने उसे पहले भी आते थे जब वह इससे भी छोटी थी। शायद चार साल की या इससे भी कुछ कम। पर तब उसके सपनों और हकीकत में अधिक अन्तर न था। सपने में रात भर मां के साथ उड़ रही होती तो दिन में मां की ही अंगुली थामे या उसके आगे-पीछे घूमती रहती। स्कूल जाने लगी तो उसके सपनों में मां के साथ कुछ और लोग भी जुड़ने लगे। पर वे सब वही लोग थे जो उसके इर्द-गिर्द होते, जैसे टिंकू... मोनू..... निशा .... भोलू और सुनीता दीदी।
सुनीता दीदी उसे बहुत अच्छी लगती। लंबे काले बालों से घिरा उनका गोल चेहरा चांद-सा दमकता। वे जब उसे कहानी सुनातीं तो वह उनकी पनीली आंखों में खो जाती।
सुबह उन्हें जब कॉलेज जाना होता तो अपनी साईकिल को दरवाजे के ठीक सामने लाकर ट्रिंग....ट्रिंग घंटी बजाती। वह अपना बस्ता उठाये तैयार होती और भागकर साईकिल के पीछे जा बैठती। चमकते लाल रंग वाली साईकिल के पीछे बैठकर सवारी करने में उसे बड़ा मजा आता। खुली सड़क पर आते ही दीदी जब साईकिल को लहराकर चलाती तो वह खुशी से झूम उठती। कुछ ही देर में जैसे उड़ने लगती.....
मुख्य सड़क से उतर कर साईकिल जब उसके स्कूल की तरफ जाने वाली कच्ची सड़क पर मुड़ती तो ऊंचाई पर चढ़ते हुए जरा धीमे हो जाती। ऊंचाई पर कुछ लहराकर चलने से साईकिल उसे रेंगती हुई-सी लगती। धीरेे-धीरे ऊंचाई पर चढ़ने से उसे लगता जैसे वह बादलों को छूने जा रही हो। पर बादल....? साईकिल जब टीले की पूरी ऊंचाई पर भी पहुंच जाती तब भी उतनी ही ऊंचाई पर ऊंघते हुए दीखते। अब साईकिल को फिर से नीचे ढलना होता तो नीचे जाती हुई सड़क पर वह बहती हुई-सी लगती। उसे लगता वह पानी में तैर रही है। वह साईकिल के ठीक विपरीत सीधा तन जाती बल्कि कुछ-कुछ पीछे की ओर ही झुक जाती। दीदी के लहराते बाल भी जैसे उसका पीछा करते। उनके खुले बालों में अपना चेहरा छुपाए वह फिर से सब कुछ भूलने लगती। बालों से आती भीनी-भीनी खुशबू उसके बाजुओं को थामकर उड़ा ले जाती....कहीं दूर।
यूं उसके सपनों का कोई अंत न था। पर जागते-सोते हर सपने के अंत में वह उड़ने लगती। कभी-कभी तो उसे लगता सचमुच ही उसके दोनों हाथों के पास दो नन्हें से पंख निकल आते। कोमल और चमकते हुए रंग-बिरंगे पंख। उसकी खुशी का ठिकाना न रहता। पल भर में ही वह उड़कर दूर निकल जाती......वहां तक जहां ‘सर्र..र’’ से गुजरती हवा भी ‘मह-मह’ महकती खुशबुओं में बदल जाती। वह दौड़कर खुशबुओं को समेट लेना चाहती। पर उसके पास जाते ही तैरते हुए खुशबुओं को सैलाब अचानक सिमटने लगता। उसके आश्चर्य का ठिकाना न रहता जब घनीभूत होती खुशबुओं को स्वंय के जैसी ही नन्हीं-नन्हीं परियों में बदलते हुए देखती। वह सबके साथ मिलकर हंसती-गाती और नाचने लगती।
दीदी के साथ जब वह साईकिल के पीछे बैठकर स्कूल जाती तो कभी-कभी ठीक से समझ नहीं पाती थी कि उस समय वह सचमुच ही स्कूल जा रही होती थी या स्वप्न में। क्योंकि दोनों ही स्थितियों में उसके नथुनों में दीदी के बालों की सौंधी-सी महक बराबर बनी रहती।
उसे ठीक से मालूम तो न था पर कभी-कभी उसे लगता..... शायद दीदी भी सपने देखती थी। मुख्य सड़क से उसके स्कूल की तरफ कच्चे रास्ते पर मुड़ने से ठीक पहले एक बाग था। साईकिल जब उस बाग के सामने से गुजरती तो यकायक दीदी के हाथ साईकिल के ब्रेकों पर कस जाते।
‘आ.... जरा सुस्ता लें।’
दीदी बगीचे में खिले हुए प्यारे-से फूलों के पास अपना चेहरा ले जाकर कुछ बुदबुदातीं और अपने गालों को कोमल-कोमल पंखुड़ियों से सहलातीं तो वह कुछ समझ न पाती। पर रात में जब सपने में दीदी अपने गालों को फूलों की पंखुड़ियों से छुआते हुए फुसफुसाती तो उनकी फुसफुसाहट को वह साफ सुन लेती। दीदी के बतियाने से फूल भी हंस-हंस कर बातें करने लगते। वह भी शर्माती हुई दीदी की बगल में जाकर खड़ी हो जाती।
‘ये चुन्नी...चुनिया है....’ दीदी फूलों से उसका परिचय कराती और कुछ ही देर बाद वह भी उनके साथ हंस-हंस कर खेल रही होती....भाग रही होती.... तितलियों-सी उड़ रही होती।
अब तो वह भी चाहने लगी थी कि स्कूल जाते हुए कुछ देर बगीचे में बैठ लिया जाए। हरी-हरी नाजुक-सी घास की पत्तियों पर नंगे पांव चलना उसे बहुत सुहाता। घास की पत्तियों के कोनों पर ठिठक कर रह गईं ओस की बूंदें जब धूप के चौंधे में मोती-सी चमकतीं तो वह फूली न समाती। चमकते हुए इन मोतियों में रोशनी से बनते-बिगड़ते रंगों को वह अपनी आंखें झपका कर देखती जाती। उसका मन करता कि इन सारे मोतियों को चुनकर अपने दामन में भर ले।
उस रोज भी वह दीदी के साथ थी। बगीचे के मेन गेट के ठीक सामने उन्होंने साईकिल खड़ी की और उसकी अंगुली थामे बगीचे में आ गयीं। धूप अभी पूरी तरह खिली नहीं थी। ऊपर आसमान में हल्के बादल थे जो छितराकर दूर-दूर ठहर गए थे। पर सरककर कोई एक टुकड़ा जब सूरज के ऐन सीध में आ जाता तो सीधी आती हुई धूप अचानक बिखर जाती। छिटकी हुई किरणें दूर ऊंचे-ऊंचे मकानों की मुंडेरों पर चिपक जातीं जैसे अचानक किसी ने चमकती हुई कतरनें बिखेर दी हों।
बगीचे में घुसते ही उसने अपने पांवों के जूते निकाल लिए और नंगे पांव घास पर दौड़ने लगी। झूले के पास पहुंची तो उस पर बैठकर झूलने लगी। मन फिर भटका और खाली पड़ी बेंच पर आकर बैठ गयी। इधर-उधर देखा। दूर कोने में खड़ी एक गुलाब की झाड़ी में नन्हीं चिरैया चिंचिया रही थी। वह उठी और सधे हुए कदमों से झाड़ी के नजदीक पहुंच गयी। चिंचियाने के साथ-साथ चिड़िया बार-बार अपनी गर्दन को भी घुमा रही थी। गर्दन को इस तरह घुमाने से कुछ-कुछ गहरे भूरे रंग के कोमल बालों के पीछे छुपा काला रंग उसकी गर्दन के चारों ओर एक पतली पट्टी के रूप में दीख पड़ता। वैसे उसकी छोटी-सी भूरी देह पर कुछ-कुछ काले रंग की पतली लकीरों के कारण एकदम से फैसला कर पाना मुष्किल था कि आवाज उसी की थी। हां.... उसकी हिलती हुई गर्दन और तेजी से घूमती हुई गोल-गोल आंखों से अवश्य अंदाजा लगाया जा सकता था।
उसकी आंख सिर्फ चिड़िया पर ही टिकी थी। जरा दूरी पर खड़े होकर वह उसे ध्यान से देखने लगी। पेंडुलम की तरह घूमती गर्दन के साथ-साथ चिड़िया अपनी छोटी-सी दुम को भी कभी-कभार ऊपर-नीचे पटक रही थी।
उसने अपनी ठुड्डी के नीचे हाथ रखे हुए आंखों में आंखें डाल दीं और गर्दन को चिड़िया की तरह ही घुमाने लगी। साथ ही चिड़िया की घूमती हुई आंखों की तरह स्वंय अपनी आंखों को भी घूमाना चाहा। पर आंखें ठीक से घूम नहीं पायीं। हां..इस प्रयास में उसकी पूरी गर्दन ही घूमते-घूमते अचानक ऊपर-नीचे हो जाती।
अभी वह फिर से प्रयास करने की सोच ही रही थी कि उसके कानों में दीदी के तेज-तेज बोलने की आवाज पड़ी। उसने फुर्ती से घूमकर देखा जहां दीदी खड़ी थी एक लड़का दीदी के पास खड़ा था। लड़का शायद जोर-जोर से कुछ कह रहा था पर उसे कुछ सुनाई न दिया। दीदी भी जोर-जोर से बोल रही थीं। उसे लगा, दीदी षायद गुस्से में थी। अचानक लड़का दीदी की ओर बढ़ा। दोनों हाथ उठाकर दीदी के चेहरे को अपनी बांहों में भर लेना चाहा। पर....
‘तड़ाकऽऽ....’
लड़के के गाल पर चांटा पड़ा तो वह सहम गया। दीदी की आंखों से चिंगारियां निकल रही थीं। लड़का अब वापिस लौट रहा था पर जाते-जाते जोर-जोर से कुछ कह भी रहा था। गुस्से में दीदी के नथुने फूल-पिचक रहे थे।
वह दौड़कर दीदी के पास पहुंची तब तक लड़का जा चुका था।
‘क्या हुआ दीदी....?’
‘............’
दीदी ने सिर्फ उसकी तरफ देखा पर कुछ जवाब न दिया। उसकी छोटी-सी समझ में अब तक कुछ नहीं आया था। दीदी की जलती हुई आंखों को देखकर वह सहम गयी थी और फिर से कुछ न पूछ सकी पर उसे लगा कि लड़के को वह पहचानती थी। अरे हां....... यह तो वही लड़का था जो इन दिनों रोज उन्हें रास्ते में कहीं न कहीं मिल जाता था। अपनी मोटरसाईकिल को उनकी साईकिल के साथ-साथ चलाते हुए दीदी से कुछ न कुछ कहता रहता। कभी-कभी शायद इंगलिश में कुछ फुसफुसाता जाता। हाथों से उनकी ओर इशारे करता रहता।
दीदी उसकी तरफ ध्यान न देती और साईकिल की रफ्तार बढ़ा देती। साईकिल जब कच्चे रास्ते पर ढल जाती तो वह पीछे मुड़कर देखती। लड़का अब काफी पीछे रह जाता और अपनी मोटरसाईकिल मोड़ रहा होता। पर कभी-कभी वह बाग के ठीक पहले ही मोटरसाईकिल को तेजी से चलाकर साईकिल के आगे लाकर रोक देता। दीदी के लिए अब उसके पास से निकलना संभव न होता। साईकिल को रोकते हुए दीदी दबी जुबान में मगर गुस्से से कुछ कहती। लड़का हंसते हुए अपना हाथ हिलाता हुआ अलग हट जाता। दीदी कुछ बड़बड़ाते हुए फिर से साईकिल पर सवार हो जाती पर वह कुछ समझ न पाती थी कि ऐसा क्यों होता था ? हर दूसरे दिन या कभी-कभी तो रोज ही ऐसा होता। उसने इन दिनों कुछ-कुछ महसूस किया......... शायद दीदी कुछ परेशान रहने लगी थी।
दीदी का गुस्सा अब कम हो चुका लगा उसे। हिम्मत करके उसने फिर से पूछ लेना चाहा........‘दीदी....यह वही लड़का था न....?’ पर दीदी के चेहरे पर पसरी पथरीली खामोशी से सहम गयी वह और शब्द होठों तक पहुंचने से पहले ही बिखर गए।
उसे स्कूल के गेट पर छोड़ते ही दीदी मुड़ गयी थी। सदा की तरह उसने ‘किस’ के लिए अपना गाल आगे किया पर दीदी ने उसकी ओर देखा तक नहीं।
वह चुपचाप स्कूल में आ गयी। अन्यमयस्क-सी इधर-उधर घूमती रही। सोनू....मोनू..... टिंकू..... सभी ने उससे बातें करनी चाहीं पर वह किसी के पास नहीं बैठी। घंटी बजी तो धीरे-धीरे चलकर क्लास में जा बैठी। पहला पीरियड श्रेया मैडम ही लेती। श्रेया मैडम उसे बहुत अच्छी लगतीं। पढ़ाते हुए वह जब अपनी गर्दन को बार-बार हिलातीं तो बालों की एक लट चुपके-से उनके गाल तक खिसक आती। वर्शा के ठीक बाद धुले-धुले आसमान-सी उनकी आंखों में इतना प्यार होता कि वह उसे दीदी-सी दिखतीं।
पर आज श्रेया मैडम पढ़ा कर चली भी गयीं और उसे पता तक न चला। खाने की छुट्टी होते ही सभी बच्चे अपना-अपना टिफिन-बॉक्स लेकर बाहर पेड़ों के नीचे जा बैठे थे पर उसने अपने टिफिन को छुआ तक नहीं।
दोस्तों ने उसे साथ चलने को कहा पर वह क्लासरूम में अपने स्थान पर ही बैठी रही। गुमसुम। पर भीतर ढेर सारे प्रश्न बींध रहे थे........‘वह लड़का कौन था...?’ ‘दीदी इतना गुस्सा क्यों थी ?’
रात को दीदी के घर गयी पर दीदी से मिल न सकी। दीदी की मां बता रही थी, ‘उसका सर भारी था..... दवा लेकर सो गयी है...’। सुनते ही वह भागकर दीदी के कमरे में गयी। दीदी रजाई ढांपे लेटी थी। पुकारना चाहा पर अचानक ‘दीदी परेशान होगीं’ सोचकर लौट पड़ी।
घर में आकर बिस्तर पर लेटी तो देर तक नींद नहीं आयी। आज उसे अजीब-सा लग रहा था। मां आयी और उसके साथ लेट गयीं। मां जानती थीं कि चुन्नी रोज कहानी सुनती थी सो कहानी सुनाना शुरू किया। वह कहानी सुनती रही और कभी बगीचे में और कभी दीदी के कमरे में भटकती रही।
नींद में वह अजीब-अजीब सपनों में घिरी रही। एक सपने में दीदी रो रही थीं। वह बार-बार दीदी की आंखों से आंसू पौंछ रही थी। पर जितना वह ढांढस बंधाने का प्रयास करती दीदी उतना ही अधिक फफक पड़ती। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे ?
एक दूसरे सपने में दीदी उसे छोड़कर जा रही थी। वह रोती-चिल्लाती उनके पीछे भाग रही थी। पर दीदी ठहरी नहीं, चली गयी।
एक और सपने में दीदी पंखे से लटक रही थी। उनकी दोनों आंखें उबल पड़ी थीं और जीभ बाहर लटक आयी थी। डर के मारे वह चीख पड़ी........
‘क्या हुआ ?’ मां ने उसे झिंझोड़ा और सिर पर हाथ फिराने लगी। वह मां के चेहरे की तरफ देखती रह गयी। कुछ समझ न सकी। चेहरे पर भय की लकीरें खिंच आयी थीं।
‘बुरा सपना आया था ?..... चलो अब सो जाओ....।’ मां ने उसे फिर से सुलाने का प्रयास किया।
रात में जरा बारिष हुई थी पर सुबह मौसम एकदम ताजा व खुला था। दूर-दूर तक बादलों के निषान तक न थे। धुला-धुला सा आसमान सूरज की पहली किरण के साथ ही चमक उठा था। वह उठी। पर रात की बेचैनी व अनिद्रा अब भी उसके चेहरे पर ठहरी थी। मां ने गर्म पानी कर दिया। वह नहा ली। बुझा-बुझापन जरा कम हुआ। तैयार होते-होते स्कूल का टाइम हो गया और वह अपना बस्ता थामे दीदी का इंतजार करने लगी।
एक बार उसे लगा षायद दीदी नहीं आंएगी। पर आंएगी क्यों नहीं.... अब तो सर ठीक हो गया होगा ! पर.... दीदी की नाराजगी ? वह फिर से उदास हो गयी।
दरवाजे के बाहर उसे साईकिल की घंटी सुनाई दी तो वह झट से खड़ी हो गयी। पैरों को पंख लग गए जैसे।
‘दीदी.....।’ वह भागकर दीदी की बांहों में झूल गयी। दीदी ने उसकी गाल पर किस किया तो वह खिल उठी। उनकी आंखों में झांका। साफ आसमान-सी आंखों में बीते हुए कल की गर्द का नामोनिशान तक न था। पर चेहरे की खामोशी से उसे लगा शायद दीदी अब भी कुछ परेशान थीं।
‘क्या हुआ था.... दी...दी।’ दीदी की आंखों में देखते हुए उसने फिर से पूछ तो लिया पर अचानक कठोर होते उनके चेहरे की तरफ देखकर वह सहम गयी। लगा चेहरे पर ठहरी खामोशी अचानक दहकने लगी थी। वह चुपचाप पीछे कैरियर पर बैठ गयी।
बगीचा आ गया था पर दीदी ने आज साईकिल को नहीं रोका। लोहे के गेट की झिरियों से उसने बगीचे के भीतर झांकने की कोशिश की। घास के होठों पर ठहरे मोतियों की लड़ियां उदास थीं। हमेशा दिप-दिप करते फूलों के चेहरे झुके थे। उसे लगा दूर कोने की झाड़ी में चिरैया आज भी बैठी थी पर ........चुप-चुप सी। उसकी गोल-गोल आंखें उन्हें गेट के सामने से गुजरते हुए देख रही थीं। उसकी इच्छा हुई एक बार भागकर बाग में हो आए। पर दीदी..? वह तो साईकिल को सरपट दौड़ाए ही जा रही थी। रोज तो वह पीछे मुड़-मुड़ कर उससे बातें करती रहतीं पर आज....। साईकिल के पैडलों पर रखे उनके पांव मषीन की तरह घूम रहे थे। चुप्पी के भीतर जो कुछ भी स्थिर होने को था, पांव की गति में उसे उंडेल देना चाहती हो जैसे।
साईकिल अब मुख्य सड़क के चौराहे से थोड़ी दूरी पर थी। उसने फिर से मुड़ कर देखा। गेट काफी पीछे छूट चुका था। मायूसी से उसने अपनी निगाहें हटा लीं और सड़क के सहारे दूर तक खिंची बगीचे की दीवार पर टिका दीं। अचानक उसे लगा दीवार के पीछे घास की नाजुक-सी पत्तियों के लरजते होंठ, रंग-बिरंगे फूलों के नन्हें से हाथ और चिरैया की मटकती हुई आंखें उसे इषारे से बुला रही हैं। उससे रहा नहीं गया। व्याकुल-सी निगाहों से उसने नजदीक आते चौराहे की ओर देखा। साईकिल को वहीं से ही कच्चे रास्ते पर ढल जाना था पर बगीचा.......? सोचकर वह बेचैन हो उठी। पीछे की ओर लहराते दीदी के दुपट्टे को तेजी से खींचा और पुकारा.......‘दी....दी.....’।
....उफ्फ.....!
आवाज उसके होंठों तक पहुंच ही न पायी होगी। तेजी से आती हुई एक मोटरसाईकिल जिस पर तीन युवक सवार थे, उनके ऐन करीब से गुजरी और पीछे बैठे युवक ने अचानक दीदी के चेहरे पर पानी-सा कुछ फेंक दिया।
साईकिल लहराई और गिर पड़ी। वह भी छिटक कर दूर जा पड़ी। उसकी समझ में कुछ न आया।
‘आंऽ....ईऽ ऽ’ उसे दीदी की चीख सुनाई दी तो वह फुर्ती से खड़ी हुयी पर उसके मुंह से चीख निकल गई। पांव में मोच आ गयी थी शायद। अपने पैर को घसीटते हुए दीदी की तरफ बढ़ी। वे लगातार चीख रही थीं और तड़प रही थीं।
भागती सड़क अचानक ठहर गयी।
‘गाड़ी नजदीक लाओ भई.....’ भीड़ में से कोई कह रहा था। भय और पीड़ा से कांपते हुए लगभग एक टांग के सहारे उसने भीड़ को चीर कर दीदी के पास जाना चाहा। पर पीठ पर झूल रहा बस्ता बार-बार लोगों की टांगों में उलझ रहा था। एक गाड़ी नजदीक लायी गयी तो भीड़ एक तरफ से फट गयी। दीदी ऐन सामने थी उसके।
‘नहीं.....ऽ ऽ ऽ....।’ उसके मुंह से चीख निकल गयी। सड़क पर पड़े हुए दीदी बुरी तरह से तड़प रही थीं। उनका चेहरा बहुत भयानक और डरावना दीख रहा था।
चेहरे, हाथों और दूसरे अंगों पर गिरे तेजाब का असर इतना गहरा था कि जगह-जगह से चमड़ी उधड़कर अलग हो गयी थी। गालों और ठुड्डी का मांस भी निकल आया था जो लटक कर उन्हें और भी वीभत्स कर रहा था। उन्हें इस हालत में देखते ही वह बेहोश होकर गिर पड़ी।
रात....दिन....और रात। समय गुजर रहा था पर वह अभी भी बेहोश थी। आज चौथा दिन था। इस बीच उसे पल भर के लिए होश आता। वह अपने चारों ओर बैठे मम्मी-पापा, चिंटू, मोनू और दूसरे लोगों की भीड़ के चेहरों की ओर विस्फारित नेत्रों से देखती। अचानक उसकी सूखी आंखों में सपने-सा एक दृश्य तैर जाता।
वह तेजी से साईकिल पर जा रही होती। हर पल उसके पैरों का दबाव साईकिल के पैडलों पर बढ़ रहा होता और साईकिल हवा से बातें करने लगती। ऊपर फैला आसमान जैसे उसके भीतर उतर आता और वह उड़ने लगती। सड़क के दोनों किनारों पर बने ऊंचे-ऊंचे मकान, पुलिया, पार्क और चौराहे, सब के सब तेजी से पीछे छूटते जाते। उसकी लाल चमकती हुई साईकिल अब ऊंचाई पर चढ़ रही होती। वह अपने पैरों को और अधिक तेजी से चलाना शुरू कर देती। पर अचानक....वह देखती, ढेर सारी मोटरसाईकिलों पर सवार युवक उसे घेर लेते। सबके हाथों में एक-एक खुले मुंह वाला डिब्बा होता। वह भयभीत हो जाती पर साईकिल को और तेजी से चलाकर बच निकलने का प्रयास करती। उसे ऐसा करते देख सारे के सारे युवक विद्रुपता से हंसने लगते और अट्टहास करते हुए डिब्बों का तेजाब उस पर फेंकने लगते।
‘नहीं....ऽ ..ऽऽ...।’
और वह फिर से बेहोश हो जाती।

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